With a Saree on and an attempted smile
i sit in front of your altar for a while...
And in my mind plays this Hindi poem from Childhood...
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बहुत बार आई-गई यह दिवाली
मगर तम जहां था वहीं पर खड़ा है,
बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में,
किया क़ैद जिसने उसे शक्ति छल से
स्वयं उड़ गया वह धुंआ बन पवन में,
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!